था जिन्हें हुस्न-परस्ती से हमेशा इंकार
वो भी अब तालिब-ए-दीदार हैं किन के उन के
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सौ तरह का छोड़ कर आराम तेरे वास्ते
जूँ जूँ नहीं देखे है 'निसार' अपने सनम को
ये जो हम से दो चार बैठे हैं
ख़ंजर न कमर में है न तलवार रखे है
देखे कहीं रस्ते में खड़ा मुझ को तो ज़िद से
कुछ मुझे अब ज़िंदगी अपनी नज़र आती नहीं
मुझ में और उन में सबब क्या जो लड़ाई होगी
क्या फ़ुसूँ तू ने ख़ुदा जाने ये हम पर मारा
दोस्ती चाह दिली मेहर-ओ-मोहब्बत गुज़री
अश्क हुए हैं अबतर ऐसे हम को बहाए देते हैं
कटती है कोई दम यहीं औक़ात मज़े की