इतना गया हूँ दूर मैं ख़ुद से कि दम-ब-दम
करनी पड़े है अपनी भी अब इल्तिजा मुझे
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सफ़्फ़ाक इब्तिदा से वो बे-रहम है ग़लत
देख उस को इक आह हम ने कर ली
अपनी तो इस चमन में नित उम्र यूँही गुज़री
मक़्तल-ए-यार में टुक ले तो चलो ऐ यारो
शाहिद रहियो तू ऐ शब-ए-हिज्र
मैं किंगरा-ए-अर्श से पर मार के गुज़रा
उस के दर पर मैं गया साँग बनाए तो कहा
गर जोश पे टुक आया दरियाव तबीअत का
काम में अपने ज़ुहूर-ए-हक़ है आप
चाक करता है अभी जामा-ए-उर्यानी को
नित जिन आँखों में रहे था तेरी सूरत का ख़याल