पैवंद की तरह नज़र आता है बद-नुमा
पुख़्ता मकान कच्चे घरों के हुजूम में
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शोला-ए-तरब
हम शाएर-ए-हयात हैं हम शाएर-ए-हयात!
बहती नहीं है मर्द की आँखों से जू-ए-अश्क
मसीहा
इडेन गार्डेन
सब मस्तियों में फेंको न पत्थर इधर उधर
ग़मगीं हैं दिल-फ़िगार हैं मेरे यहाँ के लोग
चुप रहोगे तो ज़माना इस से बद-तर आएगा
तह-ए-ख़ंजर
उन मकानों में भी इंसान ही रहते होंगे
कुछ दर्द के मारे हैं कुछ नाज़ के हैं पाले
शायद किसी की याद का मौसम फिर आ गया