खेल-कूद कर शाम ढले क्यूँ
अपने घर को जाती धूप
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एक मुद्दत से उसे हम ने जुदा रक्खा है
फूल सा इक खिला है आँखों में
जाने क्यूँ लोग मिरा नाम पढ़ा करते हैं
शाम हुई तो सूरज सोचे
मेरी शोहरत के पीछे है
बात कैसी भी हो अंदाज़ नया देता था
रंग तेरा उड़ा उड़ा सा है
तेरे मेरे बीच नहीं है ख़ून का रिश्ता फिर भी क्यूँ
पहली साँस पे मैं रोया था आख़िरी साँस पे दुनिया
मुझ को याद रहा तू भूला
आग लगाई तुम ने ही तो