मुझ को याद रहा तू भूला
बात है ये तो आदत की
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रंज-ओ-ग़म से जो बे-ख़बर होता
तेरे मेरे बीच नहीं है ख़ून का रिश्ता फिर भी क्यूँ
आग लगाई तुम ने ही तो
शंकर बना के लोग मुझे पूजते रहे
सारी बे-रंग सोच के चेहरे
जाने क्यूँ लोग मिरा नाम पढ़ा करते हैं
शाम हुई तो सूरज सोचे
छुपी है अन-गिनत चिंगारियाँ लफ़्ज़ों के दामन में
तेरी चाहत की है इतनी शिद्दत
एक मुद्दत से उसे हम ने जुदा रक्खा है
फूल सा इक खिला है आँखों में