टहनी पे ख़मोश इक परिंदा
माज़ी के उलट रहा है दफ़्तर
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Habib Jalib
Allama Iqbal
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Jaun Eliya
Gulzar
Javed Akhtar
Mir Taqi Mir
Faiz Ahmad Faiz
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माना कि तू सवार है और मैं पियादा हूँ
हम अपने हाल-ए-परेशाँ पे बारहा रोए
उर्दू का जनाज़ा है ज़रा धूम से निकले
सदियों तक एहतिमाम-ए-शब-ए-हिज्र में रहे
अपने को तलाश कर रहा हूँ
दिल से या गुल्सिताँ से आती है
ख़ामोश ज़िंदगी जो बसर कर रहे हैं हम
राज़-ए-गिरफ़्तगी न असीर-ए-लहन से पूछ
बता क्या क्या तुझे ऐ शौक-ए-हैराँ याद आता है
अहरमन है न ख़ुदा है मिरा दिल
कहीं से साज़-ए-शिकस्ता की फिर सदा आई
आदमी की तलाश में है ख़ुदा