हाथ हमारे सब से ऊँचे हाथों ही से गिला भी है
हाथ हमारे सब से ऊँचे हाथों ही से गिला भी है
घर ऐसे को सौंप दिया जो आग भी है और हवा भी है
अपनी अना का जाल किसी दिन पागल-पन में तोडूँगा
अपनी अना के जाल को मैं ने पागल-पन में बुना भी है
दिए के जलने और बुझने का भेद समझ में आए तो क्या
इसी हवा से जल भी रहा था इसी हवा से बुझा भी है
रौशनियों पे पाँव जमा के चलना हम को आया नहीं
वैसे दर-ए-ख़ुर्शीद तो हम पर गाहे गाहे खुला भी है
दर्द की झिल-मिल रौशनियों से बारा ख़्वाब की दूरी पर
हम ने देखी एक धनक जो शोला भी है सदा भी है
तेज़ हवा के साथ चला है ज़र्द मुसाफ़िर मौसम का
ओस ने दामन थाम लिया तो पल-दो-पल को रुका भी है
साहिल जैसी उमर में हम से सागर ने इक बात न की
लहरों ने तो जाने क्या क्या कहा भी है और सुना भी है
इश्क़ तो इक इल्ज़ाम है उस का वस्ल का तो बस नाम हुआ
वो आया था क़ातिल बन के क़त्ल ही कर के गया भी है
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