ये मय-कदा है कि मस्जिद ये आब है कि शराब
कोई भी ज़र्फ़ बराए वुज़ू नहीं बाक़ी
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धोके से पिला दी थी उसे भी कोई दो घूँट
वा'दा था जिस का हश्र में वो बात भी तो हो
उठवाओ मेज़ से मय-ओ-साग़र 'रियाज़' जल्द
उठता है एक पाँव तो थमता है एक पाँव
जो थे हाथ मेहंदी लगाने के क़ाबिल
थका ले और दौर-ए-आसमाँ तक
हो के बेताब बदल लेते थे अक्सर करवट
अब मुजरिमान-ए-इश्क़ से बाक़ी हूँ एक मैं
जोबन उन का उठान पर कुछ है
आबाद करें बादा-कश अल्लाह का घर आज
शेर-ए-तर मेरे छलकते हुए साग़र हैं 'रियाज़'
किस किस तरह बुलाए गए मय-कदे में आज