दिल-ए-नादाँ तिरी हालत क्या है
तू न अपनों में न बेगानों में
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जी नहीं आप से क्या मुझ को शिकायत होगी
जैसे दरिया में गुहर बोलता है
शगुफ़्त-ए-गुंचा-ए-महताब कौन देखेगा
क्या मंज़िल-ए-ग़म सिमट गई है
चैन अब मुझ को तह-ए-दाम तो लेने देते
थकी थकी सी फ़ज़ाएँ बुझे बुझे तारे
आप ठहरे हैं तो ठहरा है निज़ाम-ए-आलम
तुम को बेगाने भी अपनाते हैं मैं जानता हूँ
रुख़ पे यूँ झूम कर वो लट जाए
दिलों को तोड़ने वालो तुम्हें किसी से क्या
कभी जिगर पे कभी दिल पे चोट पड़ती है