तुम्हें लगता है जो वैसी नहीं हूँ
मैं अच्छी हूँ मगर इतनी नहीं हूँ
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अपनी सूरत-ए-ज़र्द छुपाती फिरती हूँ
सहेली की सहेली 'अर्शिया-हक़'
औरत हो तुम तो तुम पे मुनासिब है चुप रहो
तेरे लिए मैं बाज़ी लगाऊंगी जान की
तुम्हारे ख़त जला कर के तुम्हें यकसर भुला दूँगी
हिजाब करने की बंदिश मुझे गवारा नहीं
दिल से हो कर दिल तलक जाया करो
जिस्म को पढ़ते रहे वो रूह तक आए नहीं
यही दुआ है वो मेरी दुआ नहीं सुनता
तुम ये कहते हो इक सवाल हो तुम
चमन में न बुलबुल का गूँजे तराना
तो क्या हुआ जो जन्मी थी परदेस में कभी