औरत हो तुम तो तुम पे मुनासिब है चुप रहो
ये बोल ख़ानदान की इज़्ज़त पे हर्फ़ है
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यही दुआ है वो मेरी दुआ नहीं सुनता
तुम भी आख़िर हो मर्द क्या जानो
बताओ तो तुम्हें कैसी लगी है
सब यहाँ 'जौन' के दिवाने हैं
तेरे लिए मैं बाज़ी लगाऊंगी जान की
सहेली की सहेली 'अर्शिया-हक़'
बला की हुस्न-वर है 'अर्शिया-हक़'
'अर्शिया-हक़' के परस्तारों में हो
तो क्या हुआ जो जन्मी थी परदेस में कभी
दिल से हो कर दिल तलक जाया करो
तुम्हें लगता है जो वैसी नहीं हूँ
अपनी सूरत-ए-ज़र्द छुपाती फिरती हूँ