'अर्शिया-हक़' के परस्तारों में हो
तुम भी काफ़िर हो गुनहगारों में हो
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Habib Jalib
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तुम्हें लगता है जो वैसी नहीं हूँ
हिजाब करने की बंदिश मुझे गवारा नहीं
अपनी सूरत-ए-ज़र्द छुपाती फिरती हूँ
सहेली की सहेली 'अर्शिया-हक़'
तो क्या हुआ जो जन्मी थी परदेस में कभी
बताओ तो तुम्हें कैसी लगी है
यूँ बातें तो बहुत सारी करोगे
तुम्हारे ख़त जला कर के तुम्हें यकसर भुला दूँगी
सब यहाँ 'जौन' के दिवाने हैं
ख़बर कर दे कोई उस बे-ख़बर को
तुम्हारा रोज़ जो मैं सर्फ़ करती रहती हूँ
दिल से हो कर दिल तलक जाया करो