सहेली की सहेली 'अर्शिया-हक़'
बहुत मुश्किल पहेली 'अर्शिया-हक़'
ख़ुशी क्या शय नहीं मा'लूम उस को
ग़मों के संग खेली 'अर्शिया-हक़'
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चमन में न बुलबुल का गूँजे तराना
तुम ये कहते हो इक सवाल हो तुम
'अर्शिया-हक़' के परस्तारों में हो
अपनी सूरत-ए-ज़र्द छुपाती फिरती हूँ
ख़बर कर दे कोई उस बे-ख़बर को
तेरे लिए मैं बाज़ी लगाऊंगी जान की
सब यहाँ 'जौन' के दिवाने हैं
हिजाब करने की बंदिश मुझे गवारा नहीं
तुम्हें लगता है जो वैसी नहीं हूँ
दिल से हो कर दिल तलक जाया करो
जिस्म को पढ़ते रहे वो रूह तक आए नहीं