सब यहाँ 'जौन' के दिवाने हैं
'हक़' कहो कौन तुम को चाहेगा
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हिजाब करने की बंदिश मुझे गवारा नहीं
तेरे लिए मैं बाज़ी लगाऊंगी जान की
अपनी सूरत-ए-ज़र्द छुपाती फिरती हूँ
तुम्हारे ख़त जला कर के तुम्हें यकसर भुला दूँगी
मस्जिद को मत जाया कर
तुम भी आख़िर हो मर्द क्या जानो
तुम्हारा रोज़ जो मैं सर्फ़ करती रहती हूँ
मैं ख़ुद पे ज़ब्त खोती जा रही हूँ
बला की हुस्न-वर है 'अर्शिया-हक़'
यही दुआ है वो मेरी दुआ नहीं सुनता
तुम्हें लगता है जो वैसी नहीं हूँ