तुम्हारा रोज़ जो मैं सर्फ़ करती रहती हूँ
तुम्हें गुमान न हो तुम मिरी मोहब्बत हो
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बताओ तो तुम्हें कैसी लगी है
सहेली की सहेली 'अर्शिया-हक़'
तुम्हारे ख़त जला कर के तुम्हें यकसर भुला दूँगी
इस धरती से उस अम्बर को लौट गया
तुम ये कहते हो इक सवाल हो तुम
औरत हो तुम तो तुम पे मुनासिब है चुप रहो
'अर्शिया-हक़' के परस्तारों में हो
हिजाब करने की बंदिश मुझे गवारा नहीं
सब यहाँ 'जौन' के दिवाने हैं
बला की हुस्न-वर है 'अर्शिया-हक़'
चमन में न बुलबुल का गूँजे तराना
यूँ बातें तो बहुत सारी करोगे