इस धरती से उस अम्बर को लूट गया
फिर से ख़ुदा के आ'ला दर को लौट गया
आदम-ज़ादों की दुनिया से तंग आ कर
एक फ़रिश्ता अपने घर को लौट गया
Anwar Masood
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औरत हो तुम तो तुम पे मुनासिब है चुप रहो
सहेली की सहेली 'अर्शिया-हक़'
तुम ये कहते हो इक सवाल हो तुम
इस धरती से उस अम्बर को लौट गया
तेरे लिए मैं बाज़ी लगाऊंगी जान की
ख़बर कर दे कोई उस बे-ख़बर को
'अर्शिया-हक़' के परस्तारों में हो
तुम्हारे ख़त जला कर के तुम्हें यकसर भुला दूँगी
चमन में न बुलबुल का गूँजे तराना
जिस्म को पढ़ते रहे वो रूह तक आए नहीं
अपनी सूरत-ए-ज़र्द छुपाती फिरती हूँ
मस्जिद को मत जाया कर