अपनी सूरत-ए-ज़र्द छुपाती फिरती हूँ
सब से अपना दर्द छुपाती फिरती हूँ
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तुम्हारा रोज़ जो मैं सर्फ़ करती रहती हूँ
जिस्म को पढ़ते रहे वो रूह तक आए नहीं
तुम्हारे ख़त जला कर के तुम्हें यकसर भुला दूँगी
तुम्हें लगता है जो वैसी नहीं हूँ
यूँ बातें तो बहुत सारी करोगे
औरत हो तुम तो तुम पे मुनासिब है चुप रहो
बला की हुस्न-वर है 'अर्शिया-हक़'
सहेली की सहेली 'अर्शिया-हक़'
'अर्शिया-हक़' के परस्तारों में हो
सब यहाँ 'जौन' के दिवाने हैं
तुम ये कहते हो इक सवाल हो तुम
मैं ख़ुद पे ज़ब्त खोती जा रही हूँ