जिस्म को पढ़ते रहे वो रूह तक आए नहीं
'जौन' को पढ़ते रहे 'मजरूह' तक आए नहीं
Mohsin Naqvi
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Faiz Ahmad Faiz
Jaun Eliya
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औरत हो तुम तो तुम पे मुनासिब है चुप रहो
यूँ बातें तो बहुत सारी करोगे
हिजाब करने की बंदिश मुझे गवारा नहीं
तुम भी आख़िर हो मर्द क्या जानो
तो क्या हुआ जो जन्मी थी परदेस में कभी
सब यहाँ 'जौन' के दिवाने हैं
अपनी सूरत-ए-ज़र्द छुपाती फिरती हूँ
तुम्हें लगता है जो वैसी नहीं हूँ
तुम्हारे ख़त जला कर के तुम्हें यकसर भुला दूँगी
बला की हुस्न-वर है 'अर्शिया-हक़'
चमन में न बुलबुल का गूँजे तराना