तुम भी आख़िर हो मर्द क्या जानो
एक औरत का दर्द क्या जानो
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सहेली की सहेली 'अर्शिया-हक़'
जिस्म को पढ़ते रहे वो रूह तक आए नहीं
तुम ये कहते हो इक सवाल हो तुम
तुम्हारे ख़त जला कर के तुम्हें यकसर भुला दूँगी
ख़बर कर दे कोई उस बे-ख़बर को
हिजाब करने की बंदिश मुझे गवारा नहीं
यूँ बातें तो बहुत सारी करोगे
तुम्हें लगता है जो वैसी नहीं हूँ
तेरे लिए मैं बाज़ी लगाऊंगी जान की
इस धरती से उस अम्बर को लौट गया
बला की हुस्न-वर है 'अर्शिया-हक़'
तुम्हारा रोज़ जो मैं सर्फ़ करती रहती हूँ