मैं ख़ुद पे ज़ब्त खोती जा रही हूँ
जुदाई क्या सितम-आलूद शय है
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यही दुआ है वो मेरी दुआ नहीं सुनता
मस्जिद को मत जाया कर
औरत हो तुम तो तुम पे मुनासिब है चुप रहो
जिस्म को पढ़ते रहे वो रूह तक आए नहीं
बताओ तो तुम्हें कैसी लगी है
बला की हुस्न-वर है 'अर्शिया-हक़'
'अर्शिया-हक़' के परस्तारों में हो
इस धरती से उस अम्बर को लौट गया
यूँ बातें तो बहुत सारी करोगे
ख़बर कर दे कोई उस बे-ख़बर को
हिजाब करने की बंदिश मुझे गवारा नहीं
तुम ये कहते हो इक सवाल हो तुम