मस्जिद को मत जाया कर
मुझ को पास बिठाया कर
मुझ से प्यार की बोली बोल
मेरे लब से रोज़ा खोल
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मैं ख़ुद पे ज़ब्त खोती जा रही हूँ
चमन में न बुलबुल का गूँजे तराना
सहेली की सहेली 'अर्शिया-हक़'
तुम भी आख़िर हो मर्द क्या जानो
अपनी सूरत-ए-ज़र्द छुपाती फिरती हूँ
'अर्शिया-हक़' के परस्तारों में हो
औरत हो तुम तो तुम पे मुनासिब है चुप रहो
इस धरती से उस अम्बर को लौट गया
हिजाब करने की बंदिश मुझे गवारा नहीं
सब यहाँ 'जौन' के दिवाने हैं
यही दुआ है वो मेरी दुआ नहीं सुनता
यूँ बातें तो बहुत सारी करोगे