दिल परेशाँ हो मगर आँख में हैरानी न हो
ख़्वाब देखो कि हक़ीक़त से पशीमानी न हो
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ज़बाँ मिली भी तो किस वक़्त बे-ज़बानों को
कब समाँ देखेंगे हम ज़ख़्मों के भर जाने का
देखने के लिए इक चेहरा बहुत होता है
ख़्वाब का दर बंद है
जो चाहती दुनिया है वो मुझ से नहीं होगा
मेरी ज़मीं
हम पढ़ रहे थे ख़्वाब के पुर्ज़ों को जोड़ के
तुझ से मिल कर भी न तन्हाई मिटेगी मेरी
तू कहाँ है तुझ से इक निस्बत थी मेरी ज़ात को
इक बूँद ज़हर के लिए फैला रहे हो हाथ
ज़मीं से ता-ब-फ़लक धुँद की ख़ुदाई है
फ़ैसले की घड़ी