शक अपनी ही ज़ात पे होने लगता है
अपनी बातें दूसरों से जब सुनते हैं
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जिस ने तिरी आँखों में शरारत नहीं देखी
अपने लिए तो ख़ाक की ख़ुश्बू है ज़िंदगी
मेरी रुस्वाई में वो भी हैं बराबर के शरीक
अस्ल में हूँ मैं मुजरिम मैं ने क्यूँ शिकायत की
तख़्ता-ए-दार पे चाहे जिसे लटका दीजे
दिल बहुत मसरूफ़ था कल आज बे-कारों में है
वो कौन है उसे सूरज कहूँ कि रंग कहूँ
ख़ुद पर भी खोलिए न कभी दिल की वारदात
हिज्र की रात मिरी जाँ पे बनी हो जैसे
जिस को जाना ही नहीं उस को ख़ुदा क्यूँ मानें
बिगड़ी हुई इस शहर की हालत भी बहुत है
पैकर-ए-गुल आसमानों के लिए बेताब है