एक को एक नहीं रश्क से मरने देता
दुख़्त-ए-रज़ ज़ाहिद से बोली मुझ से घबराते हो क्यूँ
जिस को चाहा तू ने उस को मिल गया
आलम-ए-इश्क़ में अल्लाह-रे नज़र की वुसअत
दुख़्त-ए-रज़ और तू कहाँ मिलती
कम-सिनी जिन की हमें याद है और कल की ही बात
शैख़ कुछ अपने-आप को समझें
पामालियों का ज़ीना है अर्श से भी ऊँचा
इस पर्दे में ये हुस्न का आलम है इलाही
तसव्वुर ने तिरे आबाद जब से घर किया मेरा
इंतिहा-ए-मअरिफ़त से ऐ 'शरफ़'
दिल में मिरे जिगर में मिरे आँख में मिरी