बे-उज़्र वो कर लेते हैं व'अदा ये समझ कर
ये अहल-ए-मुरव्वत हैं तक़ाज़ा न करेंगे
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कब निगह उस की इश्वा-बार नहीं
असर-ए-आह-ए-दिल-ए-ज़ार की अफ़्वाहें हैं
तंग थी जा ख़ातिर-ए-नाशाद में
तूफ़ान-ए-नूह लाने से ऐ चश्म फ़ाएदा
दस्त-ए-अदू से शब जो वो साग़र लिया किए
था ग़ैर का जो रंज-ए-जुदाई तमाम शब
रोज़ ख़ूँ होते हैं दो-चार तिरे कूचे में
आशुफ़्ता-ख़ातिरी वो बला है कि 'शेफ़्ता'
जो कू-ए-दोस्त को जाऊँ तो पासबाँ के लिए
शब वस्ल की भी चैन से क्यूँकर बसर करें
कम-फ़हम हैं तो कम हैं परेशानियों में हम