इन दिनों गरचे दकन में है बड़ी क़द्र-ए-सुख़न
कौन जाए 'ज़ौक़' पर दिल्ली की गलियाँ छोड़ कर
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न करता ज़ब्त मैं नाला तो फिर ऐसा धुआँ होता
हम हैं और शुग़्ल-ए-इश्क़-बाज़ी है
मालूम जो होता हमें अंजाम-ए-मोहब्बत
वो कौन है जो मुझ पे तअस्सुफ़ नहीं करता
मोअज़्ज़िन मर्हबा बर-वक़्त बोला
क्या जाने उसे वहम है क्या मेरी तरफ़ से
ऐ 'ज़ौक़' वक़्त नाले के रख ले जिगर पे हाथ
न हुआ पर न हुआ 'मीर' का अंदाज़ नसीब
बोसा जो रुख़ का देते नहीं लब का दीजिए
आँख उस पुर-जफ़ा से लड़ती है
कोई इन तंग-दहानों से मोहब्बत न करे
हो उम्र-ए-ख़िज़्र भी तो हो मालूम वक़्त-ए-मर्ग