हम रोने पे आ जाएँ तो दरिया ही बहा दें
शबनम की तरह से हमें रोना नहीं आता
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हैं दहन ग़ुंचों के वा क्या जाने क्या कहने को हैं
लाई हयात आए क़ज़ा ले चली चले
बा'द रंजिश के गले मिलते हुए रुकता है दिल
फिर मुझे ले चला उधर देखो
गुल उस निगह के ज़ख़्म-रसीदों में मिल गया
गईं यारों से वो अगली मुलाक़ातों की सब रस्में
एक पत्थर पूजने को शैख़ जी काबे गए
राहत के वास्ते है मुझे आरज़ू-ए-मर्ग
उठते उठते मैं ने इस हसरत से देखा है उन्हें
दुकान-ए-हुस्न में मिलती नहीं मता-ए-वफ़ा
मज़ा था हम को जो लैला से दू-ब-दू करते