कितनी फ़रियादें लबों पर रुक गईं
कितने अश्क आहों में ढल कर रह गए
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है फ़ितरत-ए-ज़न रमीदा आहू की तरह
बादल
नज़र में ढल के उभरते हैं दिल के अफ़्साने
तस्कीन-ए-विसाल ओ रंज-ए-फ़ुर्क़त क्या है
हुस्न को जो मंज़ूर हुआ
या क़ल्ब को दर्द में डुबोना सीखो
जब अश्क तिरी याद में आँखों से ढले हैं
ये क्या कि इक जहाँ को करो वक़्फ़-ए-इज़्तिराब
दिल को आए कि निगाहों को यक़ीं आ जाए
हर एक नक़्श तिरे पाँव का निशाँ सा है
शादाँ हूँ कि ग़मनाक पिए जाता हूँ
सुरय्या की गुड़िया