वाइ'ज़ ओ शैख़ सभी ख़ूब हैं क्या बतलाऊँ
मैं ने मयख़ाने से किस किस को निकलते देखा
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जाँ-फ़िशानी का वाँ हिसाब अबस
चले हो दश्त को 'नाज़िम' अगर मिले मजनूँ
रोने की ये शिद्दत है कि घबरा गईं आँखें
क्या बात है कारसाज़ तेरी मैं कौन
उलझे जो रक़ीब से वो कल पी के शराब
मुहताज नहीं क़ाफ़िला आवाज़-ए-दरा का
है आईना-ख़ाने में तिरा ज़ौक़-फ़ज़ा रक़्स
हो हिन्द का मद्ह-ख़्वाँ बरस में दो बार
जब तिरा नाम सुना तो नज़र आया गोया
'नाज़िम' उसे ख़त में कहते हो क्या लिखिए
मैं ने कहा कि दा'वा-ए-उलफ़त मगर ग़लत
है जल्वा-फ़रोशी की दुकाँ जो ये अब इसी ने