रह-ए-तलब में किसे आरज़ू-ए-मंज़िल है
शुऊर हो तो सफ़र ख़ुद सफ़र का हासिल है
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सर-ता-ब-क़दम एक हसीं राज़ का आलम
मंज़िलें राह में थीं नक़्श-ए-क़दम की सूरत
लब-ए-निगार को ज़हमत न दो ख़ुदा के लिए
जुनूँ ख़ुद-नुमा ख़ुद-नगर भी नहीं
किसी के हाथ में जाम-ए-शराब आया है
रहगुज़र हो या मुसाफ़िर नींद जिस को आए है
बस्ती में कमी किस चीज़ की है पत्थर भी बहुत शीशे भी बहुत
ज़िंदगी दिल पे अजब सेहर सा करती जाए
यादों के साए हैं न उमीदों के हैं चराग़
मंज़िलों से बेगाना आज भी सफ़र मेरा
वो नाज़ुक सा तबस्सुम रह गया वहम-ए-हसीं बन कर