ले के तेशा उठा है फिर मज़दूर
ढल रहे हैं जबल मशीनों में
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हम न कहते थे शाइरी है वबाल
बदलती रहती हैं क़द्रें रहील-ए-वक़्त के साथ
किस ने बसाया था और उन को किस ने यूँ बर्बाद किया
वो तन्हा मेरे ही दरपय नहीं है
क़िर्तास पे नक़्शे हमें क्या क्या नज़र आए
ऐ काश मिरे गोश ओ नज़र भी रहें साबित
सरकशी ख़ुद-कशी पे ख़त्म हुई
रहना तुम चाहे जहाँ ख़बरों में आते रहना
देखिए कब राह पर ठीक से उट्ठें क़दम
ज़हराब पीने वाले अमर हो के रह गए
मिरे फ़िक्र ओ फ़न को नई फ़ज़ा नए बाल-ओ-पर की तलाश है
कार्ल मार्क्स