तेरी क़िस्मत ही में ज़ाहिद मय नहीं
शुक्र तो मजबूरियों का नाम है
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माँ
पी लिया करते हैं जीने की तमन्ना में कभी
जब पुराना लहजा खो देता है अपनी ताज़गी
ये ज़िंदगी की रात है तारीक किस क़दर
नए गुल खिले नए दिल बने नए नक़्श कितने उभर गए
वो जो तस्बीह लिए है उस को
रात भी मुरझा चली चाँद भी कुम्हला गया
बुलाए जाते हैं मक़्तल में हम सज़ा के लिए
तुम होश में जब आए तो आफ़त ही बन के आए
तक़्सीर क्या है हसरत-ए-दीदार ही तो है
वो लम्हा भर की मिली ख़ुल्द में जो आज़ादी