जुनूँ के कैफ़-ओ-कम से आगही तुझ को नहीं नासेह
गुज़रती है जो दीवानों पे दीवाने समझते हैं
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मंज़िल जिसे समझते थे यारान-ए-क़ाफ़िला
ये रात यूँही बसर हो गई तो क्या होगा
दूसरों को फ़रेब दे दे कर
तिरी जुस्तुजू तिरी आरज़ू मुझे काम तेरे ही काम से
साग़र-ओ-जाम को छलकाओ कि कुछ रात कटे
शिकवा नहीं दुनिया के सनम-हा-ए-गिराँ का
वो तिरी ज़ुल्फ़ का साया हो कि आग़ोश तिरा
रुमूज़-ए-इश्क़ की गहराइयाँ सलामत हैं
अक़्ल ने तर्क-ए-तअल्लुक़ को ग़नीमत जाना
मरने के बअ'द कोई पशेमाँ हुआ तो क्या
कारवाँ तो निकल गया कोसों