मंज़िल जिसे समझते थे यारान-ए-क़ाफ़िला
पहुँचे जो उस जगह तो फ़क़त संग-ए-मील था
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अक़्ल ने तर्क-ए-तअल्लुक़ को ग़नीमत जाना
साफ़ कहिए कि प्यार करते हैं
उलझी थीं जिन नसीम से कलियाँ ख़बर न थी
हुस्न जिस हाल में नज़र आया
मरने के बअ'द कोई पशेमाँ हुआ तो क्या
याद इतना है कि मैं होश गँवा बैठा था
बुरी तक़दीर के रोने से हासिल
ये रात यूँही बसर हो गई तो क्या होगा
वो तिरी ज़ुल्फ़ का साया हो कि आग़ोश तिरा
रुमूज़-ए-इश्क़ की गहराइयाँ सलामत हैं
तिरी जुस्तुजू तिरी आरज़ू मुझे काम तेरे ही काम से