साफ़ कहिए कि प्यार करते हैं
ये निगाहों का क़ौल-ए-मुबहम क्या
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याद इतना है कि मैं होश गँवा बैठा था
दिल है बीमार क्या करे कोई
शिकवा नहीं दुनिया के सनम-हा-ए-गिराँ का
उलझी थीं जिन नसीम से कलियाँ ख़बर न थी
मैं ने तन्हाइयों के लम्हों में
मुझ को सुकूँ की चैन की पज़मुर्दगी से क्या
कारवाँ तो निकल गया कोसों
दूसरों को फ़रेब दे दे कर
वो तिरी ज़ुल्फ़ का साया हो कि आग़ोश तिरा
तू ही बता दे कैसे काटूँ
मंज़िल जिसे समझते थे यारान-ए-क़ाफ़िला