तू ही बता दे कैसे काटूँ
रात और ऐसी काली रात
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याद आए हैं उफ़ गुनह क्या क्या
दूसरों को फ़रेब दे दे कर
मुझ को सुकूँ की चैन की पज़मुर्दगी से क्या
मैं ने तन्हाइयों के लम्हों में
मंज़िल जिसे समझते थे यारान-ए-क़ाफ़िला
उलझी थीं जिन नसीम से कलियाँ ख़बर न थी
मरने के बअ'द कोई पशेमाँ हुआ तो क्या
लोग कहते रहे क़रीब है वो
बुरी तक़दीर के रोने से हासिल
रुमूज़-ए-इश्क़ की गहराइयाँ सलामत हैं
ये रात यूँही बसर हो गई तो क्या होगा
तिरी जुस्तुजू तिरी आरज़ू मुझे काम तेरे ही काम से