मुझ को सुकूँ की चैन की पज़मुर्दगी से क्या
हर रोज़ एक ताज़ा क़यामत की आरज़ू
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तिरी जवान उमंगों को हो गया है क्या
तिरी जुस्तुजू तिरी आरज़ू मुझे काम तेरे ही काम से
तिरे नाज़-ओ-अदा को तेरे दीवाने समझते हैं
जुनूँ के कैफ़-ओ-कम से आगही तुझ को नहीं नासेह
साग़र-ओ-जाम को छलकाओ कि कुछ रात कटे
बुरी तक़दीर के रोने से हासिल
कारवाँ तो निकल गया कोसों
दूसरों को फ़रेब दे दे कर
हुस्न जिस हाल में नज़र आया
कितने ही फूल चुन लिए मैं ने
अहल-ए-दिल ने किए तामीर हक़ीक़त के सुतूँ
याद आए हैं उफ़ गुनह क्या क्या