बी.ए भी पास हों मिले बी-बी भी दिल-पसंद
मेहनत की है वो बात ये क़िस्मत की बात है
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मुझ को तो देख लेने से मतलब है नासेहा
डिनर से तुम को फ़ुर्सत कम यहाँ फ़ाक़े से कम ख़ाली
ज़िद है उन्हें पूरा मिरा अरमाँ न करेंगे
एक काफ़िर पर तबीअत आ गई
बूढ़ों के साथ लोग कहाँ तक वफ़ा करें
ख़िलाफ़-ए-शरअ कभी शैख़ थूकता भी नहीं
मेरी तक़दीर मुआफ़िक़ न थी तदबीर के साथ
बोले कि तुझ को दीन की इस्लाह फ़र्ज़ है
ग़म्ज़ा नहीं होता कि इशारा नहीं होता
नई तहज़ीब
वस्ल हो या फ़िराक़ हो 'अकबर'
इश्क़-ए-बुत में कुफ़्र का मुझ को अदब करना पड़ा