हर महफ़िल से ब-हाल-ए-ख़स्ता निकला
हर बज़्म-ए-तरब से दिल-शिकस्ता निकला
मंज़िल ही नहीं यहाँ मुसाफ़िर के लिए
समझा था जिसे मक़ाम रस्ता निकला
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जो मा'नी-ए-मज़मूँ है वही उनवाँ है
है उन की यही ख़ुशी कि हम ग़म में रहें
असलियत अगर नहीं तो धोका ही सही
मर मर के लहद में मैं ने जा पाई है
हर क़तरे में बहर-ए-मा'रफ़त मुज़्मर है
इस जिस्म की केचुली में इक नाग भी है
सब कहते हैं मरकज़-ए-बदी है दुनिया
कुछ वक़्त से एक बीज शजर होता है
जो कुछ मुसीबतें हैं तुझ पर कम हैं
दुनिया के हर एक ज़र्रे से घबराता हूँ
ये संग-ए-निशाँ है मंज़िल-ए-वहदत का
गरमी में ग़म-ए-लिबादा ना-ज़ेबा है