हर क़तरे में बहर-ए-मा'रफ़त मुज़्मर है
हर इक ज़र्रे में कुछ न कुछ जौहर है
हो चश्म-ए-बसीरत तो हर चीज़ अच्छी
गर आँख न हो तो ला'ल भी पत्थर है
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जो मा'नी-ए-मज़मूँ है वही उनवाँ है
सरमाया-ए-इल्म-ओ-फ़ज़्ल खोया मैं ने
है उन की यही ख़ुशी कि हम ग़म में रहें
मर मर के लहद में मैं ने जा पाई है
दुनिया के हर एक ज़र्रे से घबराता हूँ
इस जिस्म की केचुली में इक नाग भी है
ये संग-ए-निशाँ है मंज़िल-ए-वहदत का
हर महफ़िल से ब-हाल-ए-ख़स्ता निकला
असलियत अगर नहीं तो धोका ही सही
गरमी में ग़म-ए-लिबादा ना-ज़ेबा है
जो कुछ मुसीबतें हैं तुझ पर कम हैं
हर ज़र्रे पे फ़ज़्ल-ए-किबरिया होता है