सब कहते हैं मरकज़-ए-बदी है दुनिया
किस की मरदूद की हुई है दुनिया
शाकी दुनिया का है हर इक दुनिया में
आख़िर किस के लिए बनी है दुनिया
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जो मा'नी-ए-मज़मूँ है वही उनवाँ है
हर ज़र्रे पे फ़ज़्ल-ए-किबरिया होता है
इस जिस्म की केचुली में इक नाग भी है
ये संग-ए-निशाँ है मंज़िल-ए-वहदत का
गरमी में ग़म-ए-लिबादा ना-ज़ेबा है
कुछ वक़्त से एक बीज शजर होता है
दुनिया के हर एक ज़र्रे से घबराता हूँ
जो कुछ मुसीबतें हैं तुझ पर कम हैं
मर मर के लहद में मैं ने जा पाई है
सरमाया-ए-इल्म-ओ-फ़ज़्ल खोया मैं ने
हर क़तरे में बहर-ए-मा'रफ़त मुज़्मर है
कम-ज़र्फ़ अगर दौलत-ओ-ज़र पाता है