हम उन से और वो हम से दम-ए-सुल्ह थे ख़जिल
छींटे लड़ा किए अरक़-ए-इंफ़िआ'ल के
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पूछा सबा से उस ने पता कू-ए-यार का
न वो ख़ुशबू है गुलों में न ख़लिश ख़ारों में
नहीं चमके ये हँसने में तुम्हारे दाँत अंजुम से
मिसाल-ए-आइना हम जब से हैरती हैं तिरे
दिल में आते ही ख़ुशी साथ ही इक ग़म आया
ख़ुदा-हाफ़िज़ है अब ऐ ज़ाहिदो इस्लाम-ए-आशिक़ का
नया मज़मून लाना काटना कोह-ओ-जबल का है
फँस गया है दाम-ए-काकुल में बुतान-ए-हिन्द के
घाट पर तलवार के नहलाईयो मय्यत मिरी
रस्ते में उन को छेड़ के खाते हैं गालियाँ
परतव-ए-रुख़ का तिरे दिल में गुज़र रहता है
आश्ना होते ही उस इश्क़ ने मारा मुझ को