यूँ मेरे साथ दफ़्न दिल-ए-बे-क़रार हो
छोटा सा इक मज़ार के अंदर मज़ार हो
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समझो पत्थर की तुम लकीर उसे
अभी आई भी नहीं कूचा-ए-दिलबर से सदा
मज़े इश्क़ के कुछ वही जानते हैं
क्या इज़्तिराब-ए-शौक़ ने मुझ को ख़जिल किया
ग़श खा के 'दाग़' यार के क़दमों पे गिर पड़ा
ये तो नहीं कि तुम सा जहाँ में हसीं नहीं
इस वहम में वो 'दाग़' को मरने नहीं देते
लुत्फ़-ए-मय तुझ से क्या कहूँ ज़ाहिद
ईद है क़त्ल मिरा अहल-ए-तमाशा के लिए
तमाशा-ए-दैर-ओ-हरम देखते हैं
हुआ है चार सज्दों पर ये दावा ज़ाहिदो तुम को
फ़लक देता है जिन को ऐश उन को ग़म भी होते हैं