है बार-ए-ख़ुदा कि आलम-आरा तू है
जो चाहिए वो तो है अज़ल से मौजूद
चक्खी भी है तू ने दुर्द-ए-जाम-ए-तौहीद
गर जौर-ओ-जफ़ा करे तो इनआ'म समझ
शैतान करता है कब किसी को गुमराह
अक्सर ने है आख़िरत की खेती बोई
जिस दर्जा हो मुश्किलात की तुग़्यानी
ऊँट
हर ख़्वाहिश-ओ-अर्ज़-ओ-इल्तिजा से तौबा
मा'लूम का नाम है निशाँ है न असर
तारीक है रात और दुनिया ज़ख़्ख़ार
अपने ही दिल अपनों का दुखाते हैं बहुत