अस्लाफ़ का हिस्सा था अगर नाम-ओ-नुमूद
इंसाँ को चाहिए न हिम्मत हारे
ढूँडा करे कोई लाख क्या मिलता है
अपने ही दिल अपनों का दुखाते हैं बहुत
मजमूआ-ए-ख़ार-ओ-गुल है ज़ेब-ए-गुलज़ार
अहमद का मक़ाम है मक़ाम-ए-महमूद
काफ़िर को है बंदगी बुतों की ग़म-ख़्वार
गर नेक दिली से कुछ भलाई की है
देखा तो कहीं नज़र न आया हरगिज़
ईद-ए-रमज़ाँ है आज बा-ऐश-ओ-सुरूर
क़ौस-ए-क़ुज़ह
नसीहत