आ कि इन बद-गुमानियों की क़सम
तेरे माथे पे ये नुमूद-ए-शफ़क़
तितली कोई बे-तरह भटक कर
किस को मालूम था कि अहद-ए-वफ़ा
आज मुद्दत के ब'अद होंटों पर
यूँ दिल की फ़ज़ा में खेलते हैं
अब्र में छुप गया है आधा चाँद
यूँ उस के हसीन आरिज़ों पर
मैं ने माना तिरी मोहब्बत में
अंगड़ाई ये किस ने ली अदा से
इक नई नज़्म कह रहा हूँ मैं
उफ़ ये उम्मीद-ओ-बीम का आलम