सर्फ़-ए-तस्कीं है दस्त-ए-नाज़ तिरा
अब्र में छुप गया है आधा चाँद
इक नई नज़्म कह रहा हूँ मैं
दूर वादी में ये नदी 'अख़्तर'
रात जब भीग के लहराती है
इस हसीं जाम में हैं ग़ल्तीदा
यूँ नदी में ग़ुरूब के हंगाम
हुस्न का इत्र जिस्म का संदल
इक ज़रा रसमसा के सोते में
मैं ने माना तिरी मोहब्बत में
ना-मुरादी के ब'अद बे-तलबी
अपने आईना-ए-तमन्ना में