ये तो बढ़ती ही चली जाती है मीआद-ए-सितम
चारा-गर भी जो यूँ गुज़र जाएँ
चाँद की पिघली हुई चाँदी में
मेरी अक़्ल-ओ-होश की सब हालतें
इश्क़ समझे थे जिस को वो शायद
क्या बताऊँ कि सह रहा हूँ मैं
जो रानाई निगाहों के लिए फ़िरदौस-ए-जल्वा है
हर तंज़ किया जाए हर इक तअना दिया जाए
वो कसी दिन न आ सके पर उसे
चारासाज़ों की चारा-साज़ी से
ये तेरे ख़त तिरी ख़ुशबू ये तेरे ख़्वाब-ओ-ख़याल
सर में तकमील का था इक सौदा