साल-हा-साल और इक लम्हा
थी जो वो इक तमसील-ए-माज़ी आख़िरी मंज़र उस का ये था
जो रानाई निगाहों के लिए फ़िरदौस-ए-जल्वा है
उस के और अपने दरमियान में अब
हर तंज़ किया जाए हर इक तअना दिया जाए
कौन सूद-ओ-ज़ियाँ की दुनिया में
ये तो बढ़ती ही चली जाती है मीआद-ए-सितम
मैं ने हर बार तुझ से मिलते वक़्त
चारा-गर भी जो यूँ गुज़र जाएँ
चारासाज़ों की चारा-साज़ी से
पास रह कर जुदाई की तुझ से
क्या बताऊँ कि सह रहा हूँ मैं