मैं ने हर बार तुझ से मिलते वक़्त
थी जो वो इक तमसील-ए-माज़ी आख़िरी मंज़र उस का ये था
क्या बताऊँ कि सह रहा हूँ मैं
इश्क़ समझे थे जिस को वो शायद
है मोहब्बत हयात की लज़्ज़त
साल-हा-साल और इक लम्हा
मिरी जब भी नज़र पड़ती है तुझ पर
जो रानाई निगाहों के लिए फ़िरदौस-ए-जल्वा है
पसीने से मिरे अब तो ये रुमाल
उस के और अपने दरमियान में अब
मेरी अक़्ल-ओ-होश की सब हालतें
ये तो बढ़ती ही चली जाती है मीआद-ए-सितम